हमने उसकी महिमा देखी, अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण
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By John Piper
About Jesus Christ
Part of the series The Gospel of John
Translation by Desiring God
और वचन देहधारी हुआ ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र) की महिमा। 15 (यूहन्ना ने उसके विषय में गवाही दी, और पुकारकर कहा, कि ‘‘यह वही है, जिस का मैंने वर्णन किया, कि ‘जो मेरे बाद आ रहा है, वह मुझ से बढ़कर है क्योंकि वह मुझ से पहले था।’’) 16 क्योंकि उस की परिपूर्णता से हम सब ने प्राप्त किया अर्थात् अनुग्रह पर अनुग्रह। 17 इसलिये कि व्यवस्था तो मूसा कि द्वारा दी गई ; परन्तु अनुग्रह, और सच्चाई यीशु मसीह के द्वारा पहुँची। 18 परमेश्वर को किसी ने कभी नहीं देखा, एकलौता पुत्र जो पिता की गोद में है, उसी ने उसे प्रगट किया।
इस अनुच्छेद के प्रमुख बिन्दु को देखने के लिए, आइये हम पद 14 पर आरम्भ करें ‘‘और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसे पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र) की महिमा।’’ ये स्मरण करने के लिए कि ‘‘वचन’’ किसे संकेत करता है, पद 1 पर वापस जाइये। ‘‘आदि में ‘वचन’ था, और ‘वचन’ परमेश्वर के साथ था, और ‘वचन’ परमेश्वर था।’’ (यूहन्ना 1: 1) अतः ‘वचन’, परमेश्वर-पुत्र की ओर संकेत करता है।
मैं पुत्र शब्द का उपयोग करता हूँ, क्योंकि यह शब्द यहाँ पद 14 में उपयोग किया गया है: ‘‘और ‘वचन’ देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसे पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र ) की महिमा।’’ अतः ‘वचन’, परमेश्वर का ‘पुत्र’ है।
एक परमेश्वर , तीन व्यक्ति
मुसलमान, इस शब्द पुत्र पर ठोकर खाते हैं, जैसे कि कई अन्य भी। उन में से कुछ सोचते हैं कि हमारा अर्थ है कि परमेश्वर ने मरियम के साथ सम्भोग किया और एक पुत्र उत्पन्न किया। बाइबल का जो अर्थ है, वो यह नहीं है। यूहन्ना 1: 1 कहता है, ‘‘आदि में ‘वचन’ था।’’ वो परमेश्वर का पुत्र है। और उसका कोई आरम्भ नहीं हुआ। आदि में ‘वह’ था। जितना भी पीछे आप जा सकते हैं--सनातन काल तक, ‘वह’ वहाँ था। और पद 3 कहता है, ‘‘सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ और जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उस में से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न न हुई।’’ इसका अर्थ है कि ‘वह’ बनाया नहीं गया। ‘वह’ किसी भी तरह से सृष्टि का हिस्सा नहीं है। अतः हम परमेश्वर के ‘पुत्र’ के बारे में जो भी जानते हैं, वो यह है: 1) ‘वह’ परमेश्वर है। 2) पिता भी परमेश्वर है। 3) ‘पुत्र’, पिता नहीं है; ‘वह’ पिता के साथ था। 4) ‘वह’ स्वयंभू/असृजित और सनातन है।
त्रियेक परमेश्वर की धर्मशिक्षा—यह है कि परमेश्वर, एक परमेश्वर तीन व्यक्ति, पिता, पुत्र, और पवित्र आत्मा के रूप में विद्यमान रहता है, के बारे में बहुत कुछ कहना शेष है। किन्तु अभी के लिए उतना ही अपने दिमाग और हृदय में रखिये। ‘पु़त्र’ और ‘पिता’ एक परमेश्वर हैं, लेकिन वे दो व्यक्ति हैं। उनका एक ईश्वरीय स्वभाव है। चेतना के दो केन्द्रों के साथ वे एक परमेश्वर हैं।
परमेश्वर, मनुष्य बना--परमेश्वर बने रहना बन्द किये बिना
अब, पद 14 क्या कहता है--और इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से ये एक है--यह कि ‘वचन’, ‘पुत्र’, मानव बना, परमेश्वर रहना बन्द किये बिना। यही है जिसे हम दो सप्ताहों में देख रहे होंगे: हम कैसे जानते हैं कि मामला यही है, और व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए इसका क्या अर्थ है।
‘‘‘वचन’ देहधारी हुआ।’’ अर्थात्, ईश्वरीय ‘वचन’, परमेश्वर का ईश्वरीय ‘पुत्र’, परमेश्वर रहना बन्द किये बिना एक मानव बना। हम इसे कैसे जानें ? और इसका हमारे लिए क्या अर्थ है ? पद 14 से इसका उत्तर देने में हम आज का हमारा सम्पूर्ण समय खर्च करेंगे।
वचन . . . हमारे बीच में डेरा किया
ईश्वरीय ‘वचन’ ने जब ‘वह’ मानव बना, ईश्वरीय ‘वचन’ बने रहना बन्द नहीं किया, हमारे यह कहने का पहला कारण, पद 14 का कथन है कि ‘वचन’ ने ‘‘हमारे बीच में डेरा किया’’। क्रिया, डेरा किया का कर्ता, ‘वचन’ है। और ‘वचन’, परमेश्वर है। अतः इसे समझने का सर्वाधिक स्वभाविक तरीका है कि परमेश्वर ने, ‘वचन’ ने, हमारे मध्य डेरा किया। यही कारण है कि स्वर्गदूत ने मत्ती 1: 23 में कहा, ‘‘देखो एक कुँवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी और उसका नाम इम्मानुएल (जिस का अर्थ यह है परमेश्वर हमारे साथ ) रखा जाएगा’’। ‘वचन’ ने, ‘पुत्र’ ने, जब ‘वह’ मनुष्य बना, परमेश्वर बने रहना बन्द नहीं किया।
महिमा, जैसे पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र) की
दूसरा कारण कि हम यह विश्वास करते हैं, पद 14 में अगला वाक्यांश है, ‘‘हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र) की महिमा।’’ किसकी महिमा ? ‘वचन’ की महिमा--‘वचन’ जो परमेश्वर है। और ये महिमा किस प्रकार की है ? यह है, ‘‘पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र) की महिमा।’’
जब यूहन्ना कहता है कि देहधारी ‘वचन’ की महिमा, ‘‘जैसी पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र) की महिमा,’’ तो क्या इस शब्द जैसी का अर्थ है कि ये एक नकली/प्रतिलिपि महिमा है ? क्या यह ‘पुत्र’ की वास्तविक महिमा नहीं अपितु मात्र ‘पुत्र’ के जैसी महिमा है ? मैं ऐसा नहीं सोचता। उदाहरण के लिए, यदि मैं कहता हूँ, ‘‘मेरे पास देने के लिए एक पुस्तक है, और मेरे प्रथम चुनाव के जैसा, मैं इसे आप को देना चाहूँगा,’’ आप प्रत्युत्तर नहीं देते, कि ‘‘मैं वास्तव में आपका प्रथम चुनाव नहीं हूँ; मैं मात्र आपके प्रथम चुनाव जैसा हूँ।’’ नहीं। जैसा का ये अर्थ नहीं होता, जब मैं कहता हूँ ‘‘मैं आपको इसे प्रथम चुनाव जैसा देना चाहता हूँ।’’ इसका अर्थ होता है: मैं इसे आपको देता हूँ क्योंकि आप वास्तव में मेरा प्रथम चुनाव हैं। जब यूहन्ना कहता है, ‘‘हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र) की महिमा’’, उसका अर्थ है, ‘‘हमने उसकी महिमा देखी है, महिमा जैसी कि वो वास्तव में है--परमेश्वर के ‘पुत्र’ की महिमा।’’
हम यह जानते हैं क्योंकि पुनः, पद 14 के प्रथम भाग में, यूहन्ना सरलता से और स्पष्टवादिता के साथ कहता है, ‘‘हमने उसकी महिमा देखी’’ --कोई कमी नहीं। किसकी महिमा ? सनातन ‘वचन’, ‘पुत्र’ की महिमा। ‘‘वचन देहधारी हुआ; और . . . हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की . . . महिमा देखी।’’ अतः देहधारण के चमत्कार को घटाया नहीं गया है। ‘वचन’ देहधारी हुआ, और उसने ऐसा, परमेश्वर बने रहना बन्द करके नहीं किया। ‘वह’ परमेश्वर की महिमा प्रगट करता है।
हमारे लिए इसका क्या अर्थ है ?
यह विश्वास करने के लिए कि ‘वचन’, परमेश्वर बने रहना बन्द किये बिना, देहधारी हुआ, 15-18 आयतें और भी कारण देती हैं। प्रभु चाहे तो, हम उसमें अगले सप्ताह जायेंगे। किन्तु अभी के लिए, आइये हम पद 14 में पूछें कि इसका हमारे लिए क्या अर्थ है कि ‘वचन’ देहधारी हुआ--कि परमेश्वर का ‘पुत्र’, परमेश्वर रहना बन्द किये बिना मानव बना। मैं यह प्रश्न क्यों पूछता हूँ ? प्रथम, क्योंकि मूल-पाठ इसका उत्तर देता है। लेकिन एक अन्य कारण है।
सम्बन्धात्मक संस्कृति का संवर्धन करना (बढ़ावा देना)
क्या आपको स्मरण है कि दो माह पूर्व, मैंने कई संदेशों द्वारा उपदेश दिया था, परमेश्वर से याचना करते हुए, कि ‘वह’ उनका उपयोग वो विकसित करने के लिए करें, जिसे मैं हमारी कलीसिया की सम्बन्धात्मक संस्कृति कहता हूँ। मैंने समझाया कि फिलिप्पियों 2: 3-4 का उद्धरण देने से मेरा तात्पर्य क्या था: ‘‘विरोध या झूठी बड़ाई के लिए कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। हर एक अपने ही हित की नहीं, वरन् दूसरों के हित की भी चिन्ता करे।’’ दूसरे शब्दों में, आइये हम एक कलीसिया के रूप में इस तरह से विकास करें कि हम अपने स्वयँ से बाहर जायें और दूसरों की सेवा करें और दूसरों की रुचियों की चिन्ता करें।
और क्या आपको याद है कि उस सेवक, सम्बन्धात्मक मनो-विचार का आधार क्या था ? अगली आयत ने स्पष्ट किया: ‘‘जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो। जिस ने परमेश्वर के स्वरूप में होकर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा। वरन अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया।’’ (फिलिप्पियों 2:5-7)। दूसरे शब्दों में, दीन, सेवक, प्रेम की नींव-- और बैतलहम में नवीनीकृत सम्बन्धात्मक संस्कृति थी: ‘वचन’ देहधारी हुआ और हमारे बीच में डेरा किया—और हमारे लिए मर गया।
देहधारण और प्रासंगिकता
‘मेरा इसे उल्लेख करने का कारण ये है, ताकि हम न कहें, ‘‘ठीक है, हमने पिछले ग्रीष्म में थोड़ा सम्बन्धात्मक पर जोर दिया, और अब हम धर्मविज्ञान में हैं।’’ नहीं। एकमात्र धर्मविज्ञान जिसका कोई मूल्य है, फिलिप्पियों-2 प्रकार की है, जो कि ठीक यूहन्ना-रचित-सुसमाचार प्रकार की है। यह हमें ख्रीष्ट (मसीह), और मसीह में महिमा को जानने में, और प्रेम के कारण मसीह के द्वारा रूपान्तरित होने में, सहायता करता है (13: 34; 15: 12)--जिसका अर्थ है कि यह हमारी कलीसिया को सम्बन्धात्मक रूप से रूपान्तरित कर देता है। यह हमें और अधिक प्रेमी, और अधिक सहायता करने वाला, और अधिक सेवक-समान, कम घमण्डी, कम स्वार्थी, कम अन्तर्मुखी, दूसरों की अधिक चिन्ता करने वाला, बनाता है।
अतः जब मैं कहता हूँ , ‘‘हम पद 14 को तब तक न छोड़ें जब तक कि हम ये पूछते हैं कि इसका हमारे लिए क्या अर्थ है कि ‘वचन’ देहधारी हुआ,’’ आप उस प्रश्न के पीछे कुछ हृदयस्पन्दन सुन सकते हैं। मेरी एक आँख सदैव इस पर रहती है कि ये महान धर्मविज्ञान हमारे व्यक्तिगत और सम्बन्धात्मक जीवनों के लिए क्या अन्तर लाता है।
यीशु में हम परमेश्वर की महिमा देखते हैं
अतः इसका हमारे लिए क्या अर्थ है कि ‘वचन’ देहधारी हुआ। पद 14 कहता है, ‘‘हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र) की, अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण महिमा।’’ इसका अर्थ है कि यीशु मसीह में हम परमेश्वर की महिमा देख सकते हैं। और इसका अर्थ है कि परमेश्वर की महिमा जो यीशु में प्रगट हुई, हमें हमारे पाप में भस्म नहीं कर देती। इसके अलावा, यह ‘‘अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण’’ है। अर्थात्, मसीह में परमेश्वर की महिमा, ‘उसकी’ सच्चाई, ‘उसकी’ विश्वासयोग्यता से स्वयं के प्रति समझौता किये बिना, हमारे प्रति ‘उसका’ अनुग्रहकारी स्वभाव है। और ये अनुग्रहकारी स्वभाव बहुत, बहुत महान है। इसी कारण वह परिपूर्ण शब्द का उपयोग करता है--शब्द परिपूर्ण, महिमा को रूपान्तरित करता है। परमेश्वर के ‘पुत्र’ की महिमा, परमेश्वर की सच्चाई से समझौता किये बिना, हम पापियों के प्रति अनुग्रहकारिता से भरी हुई है।
अनुग्रह से परिपूर्ण . . .
ये सचमुच शुभ संदेश है। परमेश्वर, एक न्यायी और दण्डित करने वाले के रूप में देहधारी होने का, चुनाव कर सकता था। और हम सब ‘उसके’ सम्मुख दोषी पाये जाते और सदाकाल के दण्ड की दण्डाज्ञा पाते। लेकिन ‘वह’ उस तरह से देहधारी नहीं हुआ। ‘वचन’, ‘पुत्र’, जो परमेश्वर है, देहधारी हुआ कि एक ईश्वरीय महिमा प्रगट करे जो ‘‘अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण’’ है। परमेश्वर का ‘वचन’ देह बना कि हमारे प्रति अनुग्रहकारी हो। ‘वचन’ देह बना ताकि हमारे प्रति ये अनुग्रह- कारिता, परमेश्वर की सच्चाई के अनुरूप आये। ये अनुग्रह की निरर्थक, असैद्धान्तिक, भावनात्मकता नहीं रहेगी।
यह एक धार्मिक, परमेश्वर को ऊँचा उठाने वाला, मूल्यवान अनुग्रह रहेगा। यह सीधे क्रूस पर यीशु की मृत्यु की ओर ले जायेगा। वास्तव में, यही कारण था कि ‘वह’ देह बना (देहधारी हुआ)। ‘उसके’ पास देह होनी ही थी ताकि मर सके। ‘उसे’ मानव होना ही था ताकि हमारे स्थान पर, एक परमेश्वर-मनुष्य के रूप में मर सके (इब्रानियों 2: 14-15)। ‘वचन’ देह बना ताकि यीशु मसीह की मृत्यु सम्भव हो सके। क्रूस वो स्थान है जहाँ अनुग्रह सर्वाधिक दीप्तिमय (चमकीला/सुस्पष्ट) दिखता है। यह वहाँ पूरा किया गया और खरीदा गया।
और सच्चाई से . . .
और कारण कि ये मृत्यु के द्वारा हुआ, यह है कि परमेश्वर का ‘पुत्र’ अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण है। परमेश्वर हमारे प्रति अनुग्रहकारी और स्वयं के प्रति ईमानदार है। इसलिए, जब ‘उसका’ ‘पुत्र’ आता है, ‘वह’ अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण है। जब मसीह मरा, परमेश्वर स्वयं के प्रति ईमानदार था, क्योंकि पाप दण्डित किया गया। और जब मसीह मरा, परमेश्वर हमारे प्रति अनुग्रहकारी था, क्योंकि मसीह ने दण्ड उठाया, हमने नहीं।
‘‘वचन देहधारी हुआ’’ का हमारे लिए अर्थ है कि परमेश्वर की महिमा इतिहास में प्रगट की गई, जैसी कि पहले कभी नहीं की गई, यथा (अर्थात्), अनुग्रह की परिपूर्णता में और सच्चाई की परिपूर्णता में, जो पापियों के लिए यीशु की मृत्यु में सर्वाधिक दीप्ति के साथ चमकती है।
आत्मिक सुन्दरता देखना
यहाँ सावधान रहिये कि आप यह न कहें, ‘‘अच्छा, मैं ‘उसे’ देखने के लिए वहाँ नहीं था अतः वह महिमा मेरे देखने के लिए उपलब्ध नहीं है। आप धर्मी प्रकार के लोग, परमेश्वर के ‘पुत्र’ की महिमा के बारे में वो सब जो आप चाहें, बातें कर सकते हैं, किन्तु ‘वह’ देखने के लिए यहाँ नहीं है।’’ सावधान रहिये। पद 14 में इस महिमा के बारे में ऐसा मत सोचिये कि यह मात्र बाहरी चमक या सुन्दरता है। यीशु भौतिक (शारीरिक) रूप से दीप्तिमय या सुन्दर नहीं था। ‘‘उसकी न तो कुछ सुन्दरता थी कि हम उसको देखते, और न उसका रूप ही हमें ऐसा दिखाई पड़ा कि हम उसको चाहते’’ (यशायाह 53: 2)।
और पद 14 में इस महिमा को आश्चर्यकर्मां का मात्र प्रदर्शन मत सोचिये। ऐसे लोग थे जिन्हों ने आश्चर्यकर्म देखे, जानते थे कि वे वास्तव में हुए, और कुछ भी सुन्दर या महिमामय नहीं देखा। वे ‘उसे’ मार डालना चाहते थे (यूहन्ना 11: 45-48)।
नहीं, परमेश्वर के ‘पुत्र’ की प्रगट की गई महिमा, ‘वचन’ की महिमा, यीशु मसीह की महिमा, ‘उसके’ प्रथम आगमन में मुख्यतः एक आत्मिक महिमा है, एक आत्मिक सुन्दरता। यह ऐसी चीज नहीं है जो आप शारीरिक आँखों से देखते हैं, अपितु हृदय की आँखों से (इफिसियों 1: 18)। हम उस तरह से देखते हैं जैसा ‘वह’ कहता है, व्यवहार करता और प्रेम करता और मर जाता है, और अनुग्रह के द्वारा, हम एक स्वतः अधिप्रमाणित करने वाली ईश्वरीय महिमा, या सुन्दरता देखते हैं।
अनुग्रह और सच्चाई का अनुपम मिश्रण
2 कुरिन्थियों 4: 4 में पौलुस ने इसे इस तरह प्रस्तुत किया, ‘‘उन अविश्वासियों के लिए, जिन की बुद्धि को इस संसार के ईश्वर ने अन्धी कर दी है, ताकि मसीह जो परमेश्वर का प्रतिरूप है, उसके तेजोमय (मसीह की महिमा के) सुसमाचार का प्रकाश उन पर न चमके।’’ ‘‘मसीह की महिमा, जो परमेश्वर का प्रतिरूप है,’’ वो वही है जिसे यूहन्ना 1: 14 कहता है ‘‘महिमा जैसी कि पिता के एकलौते (एकमात्र पुत्र) की, अनुग्रह और सच्चाई परिपूर्ण।’’
और याद रखिये, पौलुस उन लोगों से बातें कर रहा है जिन्होंने पृथ्वी पर के यीशु को कभी नहीं देखा था, और यूहन्ना अपना सुसमाचार उन लोगों के लिए लिख रहा है जिन्होंने पृथ्वी पर के यीशु को कभी नहीं देखा--हमारे जैसे लोग। यूहन्ना 1: 14 की महिमा और 2 कुरिन्थियों 4: 4 की महिमा, वो महिमा है जिसे, आप जब यीशु की कहानी सुनते हैं, आप आत्मिक रूप से देखते हैं।
आपको ‘उसे’ शारीरिक रूप में देखने की आवश्यकता नहीं है। यूहन्ना 20: 29 में यीशु ने कहा, ‘‘धन्य हैं वे जिन्हों ने बिना देखे विश्वास किया।’’ आप ‘उस’ से यूहन्ना के सुसमाचार और बाइबल के अन्य लेखों में मिलते हैं। और जब आप ‘उस’ से ‘उसके’ शब्दों और कार्यों की इन प्रेरणामय कहानियों के द्वारा मिलते हैं, ‘उसकी’ महिमा चमक उठती है--अनुग्रह और सच्चाई के अनुपम मिश्रण की वो स्वतः अधिप्रमाणित करने वाली सुन्दरता।
सुसमाचार के द्वारा नया जन्म
यह कोई संयोग नहीं है कि 12-13 आयतें नया जन्म पाने का वर्णन करती हैं, और पद 14 परमेश्वर के पुत्र की महिमा देखे जाने का वर्णन करती है। 12-14 आयतें:
परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उस ने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात् उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं। और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा।
पद 4 याद रखिये: ‘‘उस में जीवन था; और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति थी।’’ जब नया आत्मिक जीवन दिया जाता है, नयी ज्योति आती है। यह ज्योति कोई भौतिक प्रकाश नहीं है। यह परमेश्वर के पुत्र की महिमा की आत्मिक चमक है, जिसका उल्लेख पद 14 में किया गया है। इसी प्रकार हम इसे देख पाते हैं!
और हमें यह नया आत्मिक जीवन कैसे मिलता है ? पद 13 कहता है, यह तब होता है जब हम मनुष्य के द्वारा नहीं, परमेश्वर द्वारा जन्म लेते हैं। यह नया जन्म पाने के द्वारा होता है। इसी प्रकार से हम विश्वास में आते हैं और मसीह को ग्रहण करते हैं और परमेश्वर की सन्तान बन जाते हैं (यूहन्ना 1: 12)।
सुसमाचार के द्वारा--यीशु के बचाने वाले कार्यों और शब्दों की कहानी सुनने के द्वारा--परमेश्वर हमारे अन्दर आत्मिक जीवन उत्पन्न करता है। हम सुसमाचार के द्वारा परमेश्वर से उत्पन्न होते हैं(1 पतरस 1: 23-25)। और वो नया आत्मिक जीवन, मसीह की महिमा की ज्योति देखता है (यूहन्ना 1 :4)। यह इस तरह तुरन्त होता है। इसी कारण यूहन्ना 8:12 इसे ‘‘जीवन की ज्योति’’ कहता है। जब आपको आत्मिक जीवन दिया जाता है, आप आत्मिक महिमा देखते हैं।
महिमा को देखना
अथवा, पद 12 के अनुसार, इसे कहने का दूसरा तरीका है, यह कि यह नया जीवन और दृष्टि, ज्योति में विश्वास करता है और ज्योति को, यीशु मसीह--परमेश्वर के ‘पुत्र’ की सच्चाई और महिमा, के रूप में, ग्रहण करता है। और उस जीवन व ज्योति और विश्वास करने व ग्रहण करने में, पद 12 कहता है, हमें परमेश्वर की सन्तान कहलाने का अधिकार प्राप्त होता है। अर्थात्, हम परमेश्वर की सन्तान हैं क्योंकि यह जीवन और ज्योति और विश्वास और ग्रहण करना, परमेश्वर के सन्तान होने के लिए हमारे अधिकार हैं।
अतः मैं आपके समक्ष परमेश्वर के देहधारी ‘पुत्र’ को ऊँचा उठाता हूँ: ‘वचन’ देहधारी हुआ और हमारे बीच में डेरा किया, परमेश्वर बने रहना बन्द किये बिना। ‘उसकी’ महिमा देखिये, महिमा जैसी पिता के एकमात्र पुत्र की, अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण। ‘उसे’ देखिये, उस महिमा के लिए जो ‘वह’ है, और जीवित रहिये। आमीन।